Muharram Kyu Manaya Jata Hai?: शायद ही कोई मुस्लिम इंसान हो जिसे मुहर्रम के बारे में ना पता हो, प्रत्येक मुसलमान भाई और बहन के लिए मुहर्रम का समय बेहद खास होता है| मुहर्रम के महीने में सभी मुसलमान इमाम हुसैन और उनके परिवार के द्वारा दी जाने वाली शहादत का गम और शोक मनाते है| सभी इस्लाम धर्म को मानने वाले इंसानो के लिए इमाम हुसैन एक प्रेरणास्रोत के रूप में जाने जाते है, इमाम हुसैन ने मुसलमानो को जुल्म से बचाने के लिए आवाज उठाई और अपने हक़ के लिए आखरी साँस तक लड़ाई लड़ी| यह तो आप जानते ही होंगे की इस्लाम धर्म के सभी त्योहार हिजरी कैलेंडर के अनुसार मनाए जाते है, हिजरी कैलेंडर अन्य कैलेंडर से अलग होता है और इस्लाम धर्म के सभी त्योहार चाँद के अनुसार होते है| वैसे तो अधिकतर मुसलमान मुहर्रम के बारे में अच्छी तरह से जानते है लेकिन कुछ मुसलमान ऐसे भी होते है जिन्हे मुहर्रम का नाम तो पता होता है लेकिन उन्हें मुहर्रम के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती है| अगर आप भी ऐसे मुसलमानो में शामिल है तो हमारा यह लेख आपके लिए फायदेमंद साबित होगा क्योंकि आज हम अपने इस लेख में मुहर्रम से सम्बंधित महत्वपूर्ण जानकारी जैसे मुहर्रम क्या होता है? मुहर्रम क्यों मनाया जाता है? (muharram kyu manaya jata hai) और भारत में मुहर्रम की शुरुआत किसने की ? इत्यादि, चलिए सबसे पहले हम आपको मुहर्रम के बारे में जानकारी उपलब्ध करा रहे है
मुहर्रम क्या है? (what is Muharram in Hindi)
यह तो आप अच्छी तरह से जानते ही होंगे की इस्लामिक कैलेंडर अंग्रेजी कैलेंडर से अलग होता है| मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना होता है, इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार मुसलमानो के लिए एक साल में 4 बेहद खास या पवित्र महीने आते है जिनमे से एक मुहर्रम का महीना (muharram kyu manaya jata hai) भी होता है| मुहर्रम के अलावा तीन पवित्र महीनो के नाम जुल्कावदाह, जुलहिज्जा और रजब है, इस्लाम धर्म के संस्थापक पैगम्बर मोहम्मद साहब ने इन चारो खास महीनो के बारे में बताया था|
मुहर्रम क्यों मनाए (Muharram kyu manaya jata hai)?
पैगम्बर मोहम्मद साहब के नाती इमाम हुसैन की याद में मुहर्रम का महीना मनाया जाता है और मुहर्रम के महीने का नौवा और दसवां दिन बेहद खास होता है, इसी दिन ताजिया का जुलूस भी निकाला जाता है| कुछ मुस्लिम मुहर्रम के महीने को त्योहार मानते है, मुहर्रम के दसवें दिन पैगम्बर मोहम्मद साहब के नाती इमाम हुसैन की शहादत के लिये सभी मुस्लिम शोक मनाते है, मुहर्रम का महीना शिया मुसलमानों के लिये बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण और खास होता है। मुहर्रम के दसवे दिन इमाम हुसैन और उनके परिवार के साथ साथ उनके साथी भी शहीद हुए थे, उनके बलिदान को याद करते हुए सभी मुसलमान इस दिन शोक (muharram kyu manaya jata hai) मनाते है।
मुहर्रम का इतिहास
मोहम्मद साहब के बारे में तो सभी बहुत अच्छी तरह से जानते ही है, यह बात उस समय की है जब मोहम्मद साहब ने इस्लाम को दुनिया भर में फैलाना शुरू किया था| शुरुआत में मोहम्मद की साहब की बातो को किसी ने नहीं माना, फिर धीरे धीरे लोगो को मोहम्मद साहब की बात समझ में आने लगी और कई सारे कबीलो ने मोहम्मद की बात मानकर इस्लाम धर्म को कबूल कर लिया| लगातार इस्लाम धर्म को कबूल करने वाले कबीलो की संख्या बढ़ती जा रही थी, ऐसे में बहुत सारे कबीले ऐसे भी थे जो मोहम्मद साहब से नफरत करते थे लेकिन इस्लाम की बढ़ती ताकत को देखते हुए उन्होंने डर की वजह से इस्लाम कबूल कर लिया| मोहम्मद से नफरत करने वाले सभी कबीले एक हो गए लेकिन उन्होंने नफरत अपने दिलो में रखी| मोहम्मद साहब की वफ़ात के बाद उनके दुश्मन हावी होने लगे थे, मोहम्मद साहब की वफ़ात के लगभग 55 वर्ष बाद मक्का से दूर कर्बला में एक ऐसे शासक का राज हुआ जो क्रूर शासक था, जिसका नाम याजीद था| याजीद एक बहुत महत्वाकांक्षी शासक था और उसकी सबसे बड़ी चाहत इस्लाम का शहंशाह बनना थी, इसी चाहत को पूरा करने के लिए उसने अपने आपको खलीफा भी घोषित कर दिया था| याजिद इस्लाम ने अपनी आवाम में खौफ का माहौल बना दिया था और जो भी उसकी बात नहीं मानता था उसे गुलाम बनाकर उस पर अत्याचार किया जाता था| याजीद पूरे अरब पर कब्जा करके शासन करना चाहता था, याजीद चाहता था की इस्लाम का शहंशाह बनाने की घोषणा इमाम हुसैन को करनी चाहिए| दरसल इमाम हुसैन मोहम्मद साहब के नवासे थे और इमाम हुसैन का प्रभाव अरब के लोगो पर बहुत ज्यादा था खासकर ऐसे इंसान या कबीले जो इस्लाम को मानते थे|
लेकिन मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके साथियो ने याजीद इमाम को इस्लाम का शहंशाह बनाने और मानने से साफ़ इंकार कर दिया था, इमाम हुसैन ने याजिद इमाम के खिलाफ आवाज़ उठानी शुरू कर दी| यह बात याजीद इमाम को पसंद नहीं आई और उसने इमाम हुसैन को खत्म करने का निर्णय लिया, लेकिन याजीद को सही मौका नहीं मिल रहा था| मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने अपने बीवी बच्चों की सलामती के लिए शहर छोड़ने का निर्णय लिया, इमाम हुसैन के शहर छोड़ने का दूसरा कारण यह भी था की वो किसी भी प्रकार का युद्ध नहीं चाहते थे| इमाम हुसैन ने अमन कायम रखने की वजह से शहर छोड़ने का फैसला किया, जब इमाम हुसैन अपने परिवार के साथ शहर छोड़ कर जा रहे थे तो उनके कुछ साथियो ने भी उनके साथ शहर छोड़ने का फैसला किया और वो सभी साथी भी इमाम हुसैन के परिवार के साथ रवाना हो गए|
हुसैन साहब अपने परिवार और साथियो के साथ इराक की तरफ रवाना हो गए, याजीद को इमाम हुसैन के शहर छोड़ने के बारे में पता चल गया, याजीद ने अपनी फौज को कर्बला के पास इमाम हुसैन को खत्म करने के लिए भेज दिया| कर्बला के रस्ते में याजीद की फौज ने इमाम हुसैन के काफिले को बीच में ही रोक लिया, याजिद ने इमाम हुसैन के शहर छोड़ने की कुछ शर्ते रखी अगर इमाम हुसैन उन शर्तो को मान लेता है तो याजीद उन्हें जाने देगा| याजीद की शर्ते सुनने के बाद इमाम हुसैन ने शर्ते मानने से मना कर दिया, इमाम हुसैन की ना सुनने के बाद याजीद ने इमाम हुसैन से जंग करने का ऐलान कर दिया| लेकिन इमाम हुसैन जंग करना नहीं चाहते थे, जंग ना करने के पीछे के कारण पहली बात तो इमाम हुसैन अमन चाहते थे और दूसरा उनके साथ उनके परिवार सहित केवल 72 लोग मौजूद थे|
जंग का ऐलान सुनने के बाद इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियो के साथ फुरत नदी के किनारे पर रुक गए, फिर उसी किनारे पर साथियो ने तम्बू लगा लिए, याजीद ने अपनी सेना को इमाम हुसैन के कबीले को घेरने के साथ साथ निगरानी का आदेश दे दिया, याजीद ने इमाम हुसैन के कबीले को नदी से पानी लेने की इजाजत भी नहीं दी और नदी के किनारे पर भी याजीद ने सैनिकों को तैनात कर दिया|
इमाम हुसैन और उसके परिवार के पास जो भी खाने पीने का सामान था वो उसी पर निर्भर होकर दिन बिताने लगे, कुछ दिनों बाद इमाम हुसैन के परिवार के पास खाने पीने का सामान लगभग खत्म होने लगा| हुसैन के पास दो से तीन दिन का खाना बचा था ऐसे में इमाम ने जंग को टालने के लिए सभी ने दो से तीन दिन कुछ नहीं खाया, बड़ो ने तो बिना पानी के दिन गुजार लिए लेकिन हुसैन के बेटे अली असगर का प्यास से बुरा हाल हो गया| इमाम हुसैन के छोटे बेटे की उम्र महज छह महीने थी, ऐसे में इमाम की बीवी ने अपने शौहर से कहा की इतने छोटे बच्चे की किसी से क्या दुश्मनी हो सकती है और हो सकता है की वो बच्चे को पानी पीने की इजाजत दे दें| पत्नी की बात सुनकर और बच्चे की प्यास को देखते हुए इमाम हुसैन और उनकी बीवी दोनों अपने बच्चे को पानी पिलाने के लिए नदी के पास पहुँचे| लेकिन तभी याजीद की फ़ौज के एक सैनिक ने इमाम हुसैन की गोद में मौजूद बच्चे के गले का निशाना लगा कर तीर से वार कर दिया, सैनिक के तीर से बच्चे का गला कट गया और उस छोटे से बच्चे ने अपने पिता के हाथो में तड़प तड़प कर प्राण त्याग दिए, इमाम हुसैन का सबसे छोटा बेटा उस काफिले में सबसे पहले शहीद हुआ था|
इमाम हुसैन की गोद में उनके सबसे छोटे बेटे की जान चले जाने के बाद इमाम हुसैन ने जंग लड़ने का फैसला किया| इमाम हुसैन जानते थे की अगर वो जंग नहीं करते है तो उनकी मौत भूख से हो जाएगी ऐसे में उन्होंने लड़कर मरने का निर्णय लिया, अगले दिन इमाम हुसैन अपने 72 साथियो के साथ याजीद की फौज से जंग करने लगे, इमाम हुसैन के सभी साथियो ने जमकर मुकाबला किया और फिर उनके लगभग सभी साथी और परिवार वाले इस जंग में शहीद हो गए| परिवार वाले और साथियो के मरने के बाद इमाम हुसैन ने उन सबको दफना दिया और दोपहर की नमाज अदा करने लगे| याजीद ने यह देख सोचा की इमाम हुसैन को मारने के लिए इससे बेहतर मौका नहीं मिलेगा उसने धोखे से इमाम हुसैन को भी मार दिया| बस उसी दिन से मुहर्रम के 10वे दिन को इमाम हुसैन और उनके परिवार वालो और साथियो की शहादत के रूप में जाना और मनाया जाता है|
मुहर्रम कैसे मनाते है?
मुहर्रम को मुस्लिम धर्म के लोगो के लिए बेहद खास महीना होता है, कुछ मुस्लिम मुहर्रम में रोजे भी रखते है, काफी सारे मुस्लिम मुहर्रम के शुरूआती 10 दिनों तक रोजे रखते है और जो इंसान 10 दिन रोजे नहीं पाता है वो मुहर्रम के महीने के नौवें और दसवें दिन रोजा रख लेते है| हालाँकि मुहर्रम में रोजा रखना इंसान पर निर्भर करता है क्योंकि इस्लाम में मुहर्रम में रोजा रखना जरुरी नहीं बताया गया है| मोहम्मद साहब के खास दोस्त इब्ने अब्बास ने कहा था की मुहर्रम में रोजा रखने से इंसान के गुनाह माफ़ होते है, मोहर्रम का दसवा दिन बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण होता है और इस दिन ताजिया का जुलूस निकाला जाता है| ताजिया जुलूस मुसलमानो में बहुत ज्यादा लोकप्रिय होता है और बहुत ही धूमधाम से इस जुलूस को निकाला जाता है, ताजिया के जुलूस की तैयारी काफी दिनों पहले से की जाती है| अधिकतर इंसानो को ताजिया के बारे में जानकारी होती है अगर आपको ताजिया के बारे में जानकारी नहीं है तो चलिए अब हम आपको ताजिया के बारे में बताते है
ताज़िया क्या है?
मुस्लिम समुदाय के सभी लोगो को ताजिया के बारे में जानकारी होती है, लेकिन कुछ इंसान ऐसे भी होते है जिन्हे ताजिया के बारे में जानकारी नहीं होती है| चलिए हम आपको बताते है दरसल पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद के नाती हज़रत इमाम हुसैन और उनके परिवार वालो की शहादत की याद में ताज़िया का जुलूस निकाला जाता है| यह तो आप ऊपर पढ़ ही चुके है की मुहर्रम के दसवें दिन कर्बला के मैदान में याजीद की फौज ने इमाम हुसैन और उनके परिवार के साथ साथ साथियो को शहीद कर दिया था। पैगंबर मोहम्मद साहब के नाती इमाम हुसैन ने सच्चाई के रास्ते पर चलने के लिए अपने साथियो के साथ साथ पूरे परिवार की कुर्बानी दी, बस उसी दिन से मुहर्रम के दसवें दिन इमाम हुसैन की शहादत को बाद करते हुए ताजिया का जुलूस निकाला जाता है| ताजिया के जुलूस में ताज़िया बनाया जाता है, ताजिया बनाने के लिए बाँस की खपच्चिय़ों के साथ साथ रंग बिरंगे कागज और पन्नियों का इस्तेमाल किया जाता है| सबसे पहले बाँस की खपच्चिय़ों से मकबरा जैसा बनाया जाता है , फिर उस मकबरे को रंग बिरंगे कागज और पन्नियों की मदद से सजाया जाता है| बाँस की खप्पचियो से बनाए गए मकबरे को हुसैन की कब्र माना जाता है, उस मकबरे के आगे बैठकर मातम मनाते है और कुछ लोग मासिये भी पढ़ते हैं। फिर ग्यारहवें दिन उस मकबरे को जलूस के साथ ले जाकर दफना देते है|
शिया और सुन्नी के बीच मुहर्रम में क्या अंतर होता है ?
आमतौर पर मुसलमान दो वर्ग शिया और सुन्नी में होते है, दोनों ही वर्गों के मुहर्रम मनाने का तरीका भी अलग अलग होता है| शिया समुदाय के सभी इंसान पहले मुहर्रम से लेकर दसवें मुहर्रम के दिन तक इमाम हुसैन की याद में मातम मनाते हैं और इन दिनों सभी शिया समुदाय के लोग रंगीन कपड़े और श्रृंगार को बिलकुल नहीं करते है| शिया समुदाय के लोग मुहर्रम (muharram kyu manaya jata hai) के दिन अपने शरीर का खून बहाकर इमाम हुसैन और उसके परिवार की शहादत को याद करते हैं। शिया समुदाय के इंसान पहले मुहर्रम से लेकर दसवें मुहर्रम तक छाती पीट पीटकर रोते हुए इमाम हुसैन की शहादत को याद करते है|
सुन्नी समुदाय के लोगो का मुहर्रम मनाने का तरीका थोड़ा अलग होता है, सुन्नी समुदाय के लोग शिया समुदाय की तरह से अपना खून बहाकर इमाम हुसैन को याद नहीं करते है| सुन्नी समुदाय में भी इमाम हुसैन की शहादत में ताजिया निकाला जाता है, ताजिया के जुलूस में सुन्नी समुदाय के लोग तलवार और लाठी से कर्बला की जंग को दर्शाते है और इस जंग में किसी भी तरह का एक दूसरे को नुक्सान नहीं पहुँचाया जाता है| सुन्नी समुदाय में मुहर्रम (muharram kyu manaya jata hai) के मौके पर रंगीन कपड़े पहनने या श्रृंगार करने की मनाही नहीं होती है।
भारत में मुहर्रम की शुरुआत कैसे हुई?
काफी सारे इंसानो के मन में यह सवाल होता है की भारत में मुहर्रम की शुरुआत कैसे हुई? (muharram kyu manaya jata hai) या भारत में मुहर्रम की शुरुआत किसने की? चलिए अब हम आपको बताते है की आखिर भारत में मुहर्रम की शुरुआत किसने की, तैमूर लंग के बारे में तो आप जानते ही होंगे| तैमूर लंग शिया समुदाय से आता है, तैमूर लंग दाएं हाथ और दाएं पैर से विकलांग था| तैमूर लंग हर साल मुहर्रम के महीने में इराक जाया करता था, तैमूर लंग को हृदय से सम्बंधित बिमारी हो गई जिसकी वजह से वैध और हकीमो ने तैमूर को लंबा सफर ना करने की सख्त हिदायत दी| बिमारी की वजह से तैमूर लंग मुहर्रम के मौके पर इराक नहीं जा पाया तो अपने शासक को खुश करने के लिए कुछ दरबारियों ने इमाम हुसैन की याद में बाँस की खपच्चियो से कब्र का ढांचा बनाकर उसे सजा दिया, इसका नाम ताजिया रखा गया| दरबारियो ने ताजिया बना कर तैमूर लंग के महल में रखवा दिया, जिसे देख तैमूर लंग बहुत ज्यादा प्रसन्न हुआ| धीरे धीरे तैमूर के ताजिया की खबर चारो तरफ फैलने लगी, दरबारियो की तरह ही अन्य रियासतों के नवाबों ने भी तैमूर लंग को खुश करने के लिए ताजिया बनाने की परंपरा को अपने क्षेत्र में लागू कर दी| हालाँकि तैमूर लंग से पहले भी बहुत सारे मुसलमान भारत में आए लेकिन किसी भी मुसलमान ने इमाम हुसैन की याद में ताजिया बनाकर जुलूस नहीं निकाला था| तैमूर लंग के द्वारा ताजिया की शुरुआत करने के बाद धीरे-धीरे पूरे भारत में रहने वाले सभी मुसलमानो ने ताजिया को बनाना शुरू कर दिया था|
निष्कर्ष –
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